चुनावों में आरोप-प्रत्यारोप आखिर क्यों?

जब एक घटना कुछ अंतराल पर बार-बार घटित होती हो तो उसे घटना की जगह एक नई परिपाटी के चलन का नाम दिया जा सकता है, भारतीय लोकतंत्र के विधानसभा में आरोप-प्रत्यारोप एवं अनर्गल शब्दों का प्रयोग करने की एक नई परिपाटी प्रारंभ हो गई है इसकी रोकथाम के लिए भारत के संविधान में कोई भी कानून नहीं बना, आखिर क्यों ? जब गली मोहल्ले में आपस में लोग लड़ते-झगड़ते हैं तो उसे लोग यह करार देते हैं कि इनकी आदत है इसलिए यह ऐसा काम करते हैं परंतु यह स्पष्ट है कि उनकी लड़ाई से सिर्फ दो पक्षों को ही हानिलाभ जुड़ा रहता है और एक समय के बाद वह समाप्त भी हो जाता है। इन की लड़ाई झगड़े से न तो समाज लज्जित होता है और ना ही राष्ट्र। जिनको जनता अपना प्रतिनिधि बनाकर भेजती है वह यदि क्षेत्रवाद, भाषावाद, जातिवाद, भाई-भतीजावाद आदि के नाम पर विधानसभा में शर्मनाकपूर्ण गालीगलौज, आरोप-प्रत्यारोप व अनर्गल शब्दों का प्रयोग करते हैं तो इसे क्या नाम दिया जाना चाहिए? इस कुकृत्य से समूचे प्रदेश सहित पूरा देश शर्मसार महसूस करता है।



मीडिया के माध्यम से कुछ ही क्षणों में यह खबर पूरे देश ही नहीं पूरे विश्व में फैल जाती है, विदेशी हमारे इस कृत्य को देखकर हमें किस अलंकार से विभूषित करते होंगे, इसकी सहज ही कल्पना की जा सकती है ऐसी घटनाएं कितनी विडंबना पूर्ण हैं। आम चुनावों में आरोप-प्रत्यारोप और अनर्गल शब्दों की प्रयोग जैसी घटनाएं कई प्रदेशों में घट, ऐसा ही हाल फिलहाल में राजस्थान, उत्तरप्रदेश व अन्य कई राज्यों में देखा और सुना जा सकता है जो सिर्फ भाषा के नाम पर की गई एक शर्मनाक हरकत है, क्या आप हमारे जनप्रतिनिधियों की वैचारिक संकीर्णता इतनी बढ़ गई है कि उनके पास भर्सनीय कार्यों को करने के अलावा कोई और कार्य बचा ही नहीं है। इन सभी घटनाओं पर गौर करें तो एक बात स्पष्ट होती है कि इन सभी घटनाओं के पीछे पार्टियों का निजी हित छिपा रहता है। इतिहास गवाह है कि जिन लोगों ने अपने हित साधने के लिए विघटनकारी माध्यमों को अपनाया, वही माध्यम उनके लिए सबसे अधिक नुकसान देय रहे हैं। अमेरिका ने ओसामा बिन लादेन को शह दी, वो ही उसके लिए सबसे अधिक खतरा बन चुका था, पाकिस्तान ने आतंकवादियों को पाला पोसा और आज वही आतंकवादी पाकिस्तान के गले की हड्डी बने हुए हैं। सभी राजनीतिक पार्टियों का गठन सिर्फ एक उद्देश्य के लिए ही हुआ है कि वह अपनी दूरदर्शिता से प्रदेश और राष्ट्र का विकास करें लेकिन उनका उद्देश्य तो जातिवाद, भाषावाद और अन्य के नाम पर जनता को मूर्ख बना कर अपनी ठेकेदारी को पक्का करने में परिणित हो गया है। सत्ता प्राप्ति के लिए जितने भी नैतिक अनैतिक शर्त हैं। वह सभी स्वीकार कर लिए जाते हैं यदि इनको कृत्य पर नियंत्रण नहीं हुआ तो वह दिन दूर नहीं जब भाषावाद, जातिवाद और क्षेत्रवाद के नाम पर सभी प्रदेश अपने-अपने क्षेत्र तक सिमट कर रह जाएंगे। आखिर 'इंटरनेशनल पीस मिशन' एवं 'इंडियन पीस मिशन' का मानना है कि भारत की राजनीतिक पार्टियां जिस पथ पर चल रही हैं और जैसे-जैसे लोग इसमें शामिल हो रहे हैं, उससे इस राष्ट्र और देश की जनता का कल्याण संभव नहीं है। समस्याएं अनेक हैं, समाधान किसी राजनीतिक दल के पास नहीं है। मंत्री व हाई प्रोफाइल नौकरशाह सिर्फ नौकरी कर रहे हैं, धन कमा रहे हैं और इसी के साथ राष्ट्र सेवा के नाम पर इतिश्री कर ले रहे हैं। ऐसे में क्या देश का विकास संभव है, समस्याएं मजबूत होती जा रही हैं, सरकारें कमजोर होती जा रही हैं। इतनी विडंबनापूर्ण बात है कि केन्द्र सरकार महंगाई के आगे झुक गई है, कालाबाजारियों के गोदाम पर छापा मारने की हिम्मत, सरकार और इसके तंत्र के पास नहीं रह गई है, इसका सीधा अर्थ है की कालाबाजारी करने वालों की लॉबी केंद्र सरकार से ज्यादा मजबूत और सक्षम है। यदि जनता की सोच में बदलाव नहीं लाया और राजनेता अपनी जिम्मेदारी को अभी नहीं समझे तो यह देश कागजों में विकसित देश बन जाए लेकिन हकीकत में उसकी स्थिति नारकीय ही होगी। अभी । भी वक्त है संभल का।